Sunday, February 6, 2011

Kasak...

है सदियों से सपना जो सोया हुआ सा,
कभी आँख उसने भी खोली तो होगी
हवा में उछालना भी चाहा तो होगा
कोई राह चलने को सोची तो होगी.

है बेचैन रातें गुज़रती जो हर दिन
कभी चैन से आँख सोयी तो होगी
कभी जागते होठ मुस्काए होंगे
नयी कोई उम्मीद जागी तो होगी.

हज़ारों मचलते खयालात मन में
कभी तो सुरों में समाये तो होंगे
की फुर्सत क लम्हों में बैठे बिठाये
कोई धुन ज़हन में आई तो होगी

कदम रास्तों में जो करवट न बदले
की चलने से पहले ये सोचा तो होगा
मगर भीड़ के शोर ने सपनो के
टूटने की सदा भी दबाई तो होगी.

नयी मंजिलों में नए दोस्तों में
ख़ुशी ने जगह सी बनायीं तो होगी
मगर भागते वक़्त में भी कभी तो
पुरानी कोई याद आई तो होगी.

की फिर चल रही ज़िन्दगी ने किसी दिन
मन की वो ख्वाहिश टटोली तो होगी
और सदियों से सोये हुए उस सपने ने
कभी फिर से आँखें खोली तो होंगी...